राजेश सोनी@ब्यूरो रिपोर्ट….
बिलासपुर….गौरीनंदन श्रीगणेश आज से अपने मूषक पर सवार हो कर भक्तो के घरो और पंडालो में विराजमान हो जायेंगे। दस दिनों की साधना जीवन में नई स्फूर्ति के साथ मंगलता का भी श्रीगणेश करेगी। सोमवार दो सितंबर से गणपति की साधना के विशेष दिन आरंभ हो रहे हैं। कहा जाता है कि विशेष मुर्हूत, विशेष पूजन और विशेष भोग के साथ गणपति की साधना यदि हो तो विध्नहर्ता हर विध्न हर लेते हैं लेकिन इन विशेषताओं में आस्था अवश्य ही समाहित होनी आनिवार्य है। पंडितो के अनुसार भगवान गणेश का जन्म भाद्रपद माह के शुक्लपक्ष की चतुर्थी और स्वाति नक्षत्र और सिंह लग्न में हुआ था। इसलिए गणेश चतुर्थी की पूजा हमेशा दोपहर के वक्त की जाती है। ‘गण’ का अर्थ होता है विशेष समुदाय और ‘ईश’ का अर्थ होता है स्वामी। सभी शिवगणों और देवगणों के स्वामी होने के कारण गौरी नंदन को गणेश कहा जाता है।
पंडितो के अनुसार इस वर्ष गणेश चतुर्थी गणेश चतुर्थी 02 सितंबर दिन सोमवार को सुबह 9 बजकर 1 मिनट से शुरू होने जा रही है, जो 3 सितंबर सुबह: 6 बजकर 50 मिनट तक है।
पूजा का शुभ समय सुबह 11: 04 बजे से दोपहर 1:37 बजे तक का है। पूजा की अवधि दो घंटे 32 मिनट तक रहेगी।
कैसे हुई त्योहार को उत्सव रूप में मनाने की शुरुआत
पंडित वैभव कहते हैं कि यूं तो गणेशोत्सव पूरे देश में धूम-धाम से मनाया जाता है लेकिन जैसा महाराष्ट् में मनाया जाता है वैसा भव्य नजारा कहीं और देखने को नहीं मिलता है। दरअसल महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी की धूम ही होती है। इसे मनाने के पीछे आज़ादी की लड़ाई की एक कहानी जुड़ी हुई है। 1890 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बाल गंगाधर तिलक अक्सर मुंबई की चौपाटी पर समुद्र के किनारे जाकर बैठते थे और सोचते थे कि कैसे लोगों को एकसाथ लाया जाए। वहीं उनके दिमाग में एक ख्याल आया है कि क्यों न गणेश चतुर्थी को सार्वजनिक स्थल पर मनाया जाए और इसकी वजह से हर वर्ग के लोग इसमें शामिल हो सकेंगे।
ऐसे करें गणपति का स्वागत और पूजन
– सर्वप्रथम घी का दीपक प्रज्वलित कर अपने दाएं ओर रखें। अब थोड़ा जल लेकर स्वयं के ऊपर छिड़कते हुए मार्जन कर स्वयं को पवित्र करें। मार्जन करते समय मन में यह भाव करें कि ‘जो भगवान का स्मरण करता है, वह भीतर और बाहर से सभी अवस्थाओं में शुद्ध हो जाता है।’
– अब अपनी हथेली की अंजुली में थोड़ा-थोड़ा जल लेकर उसे 3 बार पिएं। जल पीते समय निम्न मंत्र बोलें-
ॐ केशवाय नम:, ॐ माधवाय नम:, ॐ नाराणाय नम:। इसके पश्चात ‘ॐ गोविन्दाय नम:’ बोलकर हाथ धो लें।
– अब हाथ में थोड़े से अक्षत लेकर उनमें हल्दी मिला लें और भगवान श्री गणेश के स्वरूप का ध्यान करते हुए उन्हें अपने घर आमंत्रित करने का भाव करते हुए उनका आवाहन करें। आवाहन के लिए मन ही मन यह उच्चारण करें- ‘हे प्रभो, मैं आपको अपने घर आमंत्रित कर रहा हूं। आप सिद्धि-बुद्धि सहित मेरे घर पधारें’। उसके पश्चात ‘ॐ श्री गणेशाय नम:’ बोलकर गणेशजी की प्रतिमा के सम्मुख हाथ में लिए पीले चावल अर्पण कर दें।
– अब भगवान श्री गणेश आपके घर पधार चुके हैं।
तत्पश्चात आपको भगवान गणेश के पैर पखारने हैं जिसके लिए आप मन में यह भाव करते हुए कि ‘मैं भगवान श्री गणेश के श्रीचरणों को पखार (धो) रहा हूं’ एक आचमनी में जल लेकर भगवान श्री गणेश की प्रतिमा के सम्मुख अर्पित कर दें।
– अब आपको भगवान श्री गणेश को विराजित करने के लिए आसन देना है। इसके लिए आपने जो भी स्थान नियत किया है, मन में यह भाव करते हुए कि ‘मैं भगवान गणेश को बैठने के लिए आसन प्रदान करता हूं’, उस आसन पर एक दूर्वा रखकर भगवान की प्रतिमा को उस पर स्थापित कर दें।
– अब हाथ में अक्षत लेकर दीपक का पूजन करते हुए दीपक के सम्मुख अक्षत व पुष्प अर्पित करें, तत्पश्चात हाथ में जल, अक्षत व पुष्प लेकर माता पृथ्वी पर अर्पित कर उन्हें प्रणाम करें।
– अब कलश में जल भरकर उसमें हल्दी, चांदी का सिक्का व सर्वोषधि मिलाएं व उस पर आम के पत्तों के साथ एक श्रीफल लाल वस्त्र में लपेटकर रख दें। अब हाथ में पुष्प व अक्षत लेकर मन में वरुण देवता का ध्यान करते हुए यह भाव करें कि ‘इस कलश में समस्त तीर्थों व पवित्र नदियों का जल आकर मिल रहा है’, तत्पश्चात हाथ में लिए अक्षत व पुष्प कलश पर अर्पित कर दें।
– अब अभिषेक पात्र में दूर्वा रखकर भगवान श्री गणेश का चलित विग्रह, जो पीतल, चांदी, स्फटिक या पारद का हो, रखकर भगवान गणेश को शुद्ध जल से स्नान कराएं, तत्पश्चात पंचामृत से भगवान को स्नान कराएं। उसके बाद ‘अर्थवशीर्ष’ के पाठ के साथ भगवान श्री गणेश का दुग्धाभिषेक करें।
– भगवान श्री गणेश के अभिषेक के उपरांत पुन: उन्हें शुद्ध जल से स्नान कराकर, इत्र लगाकर आसन पर पधराएं और सुन्दर वस्त्र व अलंकारों से सुसज्जित करें।
– अब भगवान श्री गणेश को सिन्दूर लगाएं व पुष्प अर्पित कर माला पहनाएं।
– अब भगवान श्री गणेश को मोदक व गुड़ के साथ दूर्वा रखकर भोग लगाएं, कुछ समय बाद भगवान को पीने हेतु जल दें। अंत में फलों का भोग लगाएं।
– अब भगवान श्री गणेश की आरती उतारकर उन्हें दंडवत प्रणाम करें और हाथ में एक श्रीफल, दूर्वा व यथासामर्थ्य दक्षिणा रखकर क्षमा-प्रार्थना करते हुए यह सामग्री गणेशजी के सम्मुख अर्पित करें। अंत में थोड़ा-सा जल अपने आसन के नीचे भूमि पर छोड़कर उसे अपने दोनों नेत्रों से लगाकर पूजा संपन्न करें।
गणेश चतुर्थी पर गणपतिजी को मोदक का भोग लगाया जाता है। पुराणों में मोदक का वर्णन है। मोदक का अर्थ होता है आनंद (खुशी) और भगवान गणेश को हमेशा खुश रहने वाला माना जाता है। इसी वजह से उन्हें मोदक का भोग लगाया जाता है। मोदक को ज्ञान का प्रतीक भी माना जाता है और भगवान गणेश को ज्ञान का देवता भी माना जाता है। मोदक सदैव आनंदित रहने और भक्ति में लीन हो जाने का संदेश देता है। इसी भाव से इन्हें अर्पित किया जाता है।
एक कथा के मुताबिक, गणेश और परशुराम के बीच युद्ध हुआ था, जिसमें उनका दांत टूट गया था। दांत टूटने के कारण उनको खाने में काफी तकलीफ हो रही थी। जिसके बाद उनके लिए मोदक बनाए गए, क्योंकि मोदक काफी मुलायम होता है और मुंह में जाते ही घुल जाता है। जिसके बाद से मोदक उनका सबसे प्रिय भोजन बन गया।
एक हजार मोदक का भोग लगाने पर यह फल
गणपत्यथर्वशीर्ष में तो यहां तक लिखा है कि, “यो मोदकसहस्त्रेण यजति स वांछितफलमवाप्नोति।” यानी जो भक्त गणेश जी को एक हजार मोदक का भोग लगाता है गणेश जी उसे मनचाहा फल प्रदान करते हैं यानी उनकी मुरादें पूरी होती हैं।
स्वास्थ्य के लिए गुणकारी
पंडित वैभव के अनुसार मोदक को शुद्ध आटा, घी, मैदा, खोआ, गुड़, नारियल से बनाया जाता है। इसलिए यह स्वास्थ्य के लिए गुणकारी और तुरंत संतुष्टिदायक होता है। यही वजह है कि इसे अमृततुल्य माना गया है। मोदक के अमृततुल्य होने की कथा पद्म पुराण के सृष्टि खंड में मिलती है।
माता पार्वती ने बताए हैं गुण
गणेश पुराण के अनुसार देवताओं ने अमृत से बना एक मोदक देवी पार्वती को भेंट किया। गणेश जी ने जब माता पार्वती से मोदक के गुणों को जाना तो उसे खाने की इच्छा तीव्र हो उठी और प्रथम पूज्य बनकर चतुराई पूर्वक उस मोदक को प्राप्त कर लिया। इस मोदक को खाकर गणेश जी को अपार संतुष्टि हुई तब से मोदक गणेश जी का प्रिय हो गया।
मोदक का महत्व
यजुर्वेद में गणेश जी को ब्रह्माण्ड का कर्ता धर्ता माना गया है। इनके हाथों में मोदक ब्रह्माण्ड का स्वरूप है जिसे गणेश जी ने धारण कर रखा है। प्रलयकाल में गणेश जी ब्रह्माण्ड रूपी मोदक को खाकर सृष्टि का अंत करते हैं और फिर सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मण्ड की रचना करते हैं। गणेश पुराण में भी इस बात का उल्लेख मिलता है कि गणेश जी परब्रह्म हैं इनकी उपासना से ही देवी पार्वती के गणेश जो गजानन भी हैं पुत्र रूप में प्राप्त हुए।।